गर देर से मिले पजेशन सपनों का घर मिले, यह सबका ख्वाब होता है। लेकिन सपने को झटका तब लगता है, जब पेमेंट होने के बाद भी बिल्डर की बहानेबाजी और पैंतरों के चलते घर मिलना मुश्किल नजर आने लगता है। बुक किए घर का पजेशन समय पर न मिल रहा हो, तो ऐसी स्थिति में कंस्यूमर्स के भी अपने हक हैं और इनके लिए वे कंस्यूमर कोर्ट जा सकते हैं। कंस्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट 1986 के प्रावधानों के अनुसार बनीं कंस्यूमर कोर्ट मकान संबधी मामलों को सुन सकती हैं।
कंस्यूमर के हित में कानून
•यदि कोई बिल्डर तय वक्त में मकान बना कर नहीं देता, तो इसे सेवा में कमी माना जाएगा और बिल्डर को कंस्यूमर को ब्याज सहित पैसा वापस करना होगा। ब्याज की रकम क्या हो, इसका फैसला अदालत ही करती है।
•सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के अनुसार, अदालतें परिस्थितियों के हिसाब से 18 फीसदी तक ब्याज देने का आदेश दे सकती हैं।
•अगर बिल्डर की स्कीम किसी वजह से कैंसल हो जाती है, तो उसे कस्टमर को पूरी रकम ब्याज सहित लौटानी होगी। ऐसे मामले में भी ब्याज की दर अदालतें परिस्थितियों के हिसाब से 18 प्रतिशत तक तय कर सकती हैं।
•कोई बिल्डिंग प्लान अगर प्रशासनिक कारणों से पास नहीं हो पाता, तो इसके लिए भी बिल्डर ही दोषी माना जाएगा। बिना पूरी और सही परमिशन के बिल्डर किसी योजना की घोषणा कर पब्लिक से पैसा नहीं ले सकता।
•बिल्डर के लिए जरूरी है कि शर्तें तय करते वक्त बिल्डिंग के पूरा होने का वक्त और कब्जा दिए जाने का वक्त तय करे और एग्रीमेंट में साफ-साफ इनका जिक्र करे।
•अपनी जमीन पर बिल्डिंग बनवाने का करार भी सर्विस एग्रीमेंट माना जाता है। अगर कोई बिल्डर तय वक्त पर मकान का कब्जा नहीं देता, तो ऐसी स्थिति में भी कंस्यूमर को ब्याज मांगने का और नुकसान की भरपाई पाने का हक होता है।
•अगर मकान की खरीद-फरोख्त में प्रॉपर्टी डीलर की मदद ली जाती है और प्रॉपर्टी डीलर डील करवाने मे कुछ गड़बड़ी करता है, तो आप उसके खिलाफ कंस्यूमर कोर्ट जा सकते हैं।
इन मामलों में नहीं जा सकते कंस्यूमर कोर्ट
•अगर कोई इंसान नीलामी के जरिए मकान या घर खरीदता है, तो उसे सेवा में कमी के लिए कंस्यूमर कोर्ट जाने का अधिकार नहीं होगा। दरअसल, ऐसे मामलों में एकमुश्त रकम देकर जांच-परख कर खरीद की जाती है, रजिस्ट्रेशन करा कर घर बनवाने की सेवा नहीं ली जाती।
•किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा बनाया हुआ या पुराना मकान खरीदने पर भी सेवा में कमी का दावा नहीं किया जा सकता।
मिलेगी राहत
कंस्यूमर 20 लाख रुपये तक के मामले में डिस्ट्रिक्ट कंस्यूमर कोर्ट में, एक करोड़ के मामले के लिए स्टेट कंस्यूमर कोर्ट और एक करोड़ से ज्यादा वैल्यू के मामलों के लिए नैशनल कंस्यूमर कोर्ट में केस दायर कर सकते हैं। केस उस क्षेत्र की अदालत में दायर होगा, जिस क्षेत्र में बिल्डर का ऑफिस होगा। सिविल कोर्ट की तरह कंस्यूमर कोर्ट में मामला दर्ज करने से पहले लीगल नोटिस जरूरी नहीं है। इसमें सीधे केस दर्ज हो सकता है। कोर्ट में एप्लिकेशन देते वक्त कंस्यूमर कब्जा दिलवाने या ब्याज सहित पैसा लौटाने की मांग के साथ-साथ मानसिक कष्ट के लिए मुआवजा और वास्तविक नुकसान की भरपाई के लिए भी कह सकता है, मसलन वक्त पर मकान न मिलने के कारण किराए पर रहने की वजह से हुआ खर्च आदि।
http://epaper.navbharattimes.com/detail ... 968-1.html